Friday, 20 July 2012

समय की किल्लत को कैसे करें दूर

हम अक्सर समय की किल्लत का रोना रोते रहते हैं। शादी, पार्टी और विशेष उत्सव पर न पहुंच पाने की मजबूरी ‘समय की कमी’ के सिर थोप देते हैं, जबकि आदमी के पास समय की कमी नहीं होती। कमी होती

है तो सिर्फ उसके मैनेजमेंट की। उसकी व्यवस्था की। समय की किल्लत दूर करने के कई रास्ते हैं। पहला रास्ता टाइम मैनेजमेंट से संबंध रखता है तो दूसरा अपनी संयमित ज़िन्दगी से। ज़िन्दगी संयमपूर्ण और अनुशासित है तो अपनी इच्छाओं को पूरा करने के लिए शरीर में पर्याह्रश्वत ऊर्जा और क्षमता होगी। कोई काम बकाया नहीं रहेगा। सभी काम पूरे होंगे। समय सिमट कर हथेली पर आ जाएगा। समय की किल्लत दूर होगी। समय को यदि काम के बोझ के अनुसार विभाजित कर लिया जाए तो शायद समय की किल्लत से बचा जा सकता है, इसलिए जरूरी है कि हम पहले इस पर ही विचार करें। जो काम पहले करने हैं उनको प्राथमिकता में सबसे ऊपर रखें। इसके लिए कामों की एक सूची बना लें और उन्हें व्यवस्था, क्षमता और संसाधन के अनुसार क्रम में रख लें।

जब हम समय ह्रश्वलान कर रहे हों तो देखें कि कौनसा काम सबसे कम समय में और कितने सही तरीके से कर सकते हैं। उस काम पर आपकी नÊार बिल्ली की आंख में आए उस शिकार की तरह होनी चाहिए, जिसे फौरन निबटाना है, पर यहां शुरू करने से पहले यह जरूर समझ लें कि काम हम ठीक तरह कर पाएंगे या नहीं। ऐसा न हो कि वह आधा— अधूरा रह जाए और उस पर दोबारा मेहनत करनी पड़े। लोग अक्सर अपने कामों के प्रति बेपरवाह हो जाते हैं। वे काम को हमेशा कल के भरोसे छोड़ देते हैं और काम पीछे रह जाते हैं। काम पूरा करने के लिए हमें खुद पर सती बरतनी चाहिए।


समय और मनोविज्ञान बहुमुखी प्रतिभा के धनी अमेरिकी विचारक बेंजामिन फ्रेंकलिन ने मनोवैज्ञानिक अध्ययनों में समय के महत्व पर खूब जोर दिया। उनके अनुसार नर्व सेल्स सभी अनुभूतियों को पहले ही दिमाग तक संप्रेषित कर देते हैं, जिस कारण हम अतिसंवेदनशील हो जाते हैं। उन्होंने कहा था कि समय ही धन है, इसे मनोवैज्ञानिक के संदर्भ में कहें तो सच यह होगा कि समय ही संज्ञान है।


अच्छे काम को चिल्लर कहकर खारिज न करें

यह गाथा आपके दिल को छू लेगी। इस स्वार्थी और अपने आप में सिमटी दुनिया में, जहां पर कई बार इंसानी जिंदगी की भी परवाह नहीं की जाती, वहां पर मुंबई की एक हाउसिंग सोसायटी के कुछ बच्चों ने मिलकर एक भटके हुए कुत्ते की जान बचाई। इन बच्चों को ऐसा करने की प्रेरणा वर्ष 2011 में आई फिल्म 'चिल्लर पार्टी' (नितेश तिवारी और विकास बहल द्वारा निर्देशित) से मिली, जिसमें बच्चों का समूह साथ मिलकर इसी तरह एक आवारा भटकते कुत्ते को बचाता है।


9 साल का पामेरियन नस्ल का यह कुत्ता मुंबई के एक पश्चिमी उपनगरीय इलाके सांताक्रुज (पूर्व) में कुमार सोसायटी में रहने वाले दस वर्षीय ऑरोन डी'सिल्वा को दारुण अवस्था में मिला था, जिसे सोसायटी के चौकीदार समेत कुछ लोग मिलकर मार रहे थे। जल्द ही जेनेल डी'सिल्वा (12), पार्थ मुखर्जी (15), अनुष्का वर्मा (11), मिहिर सावंतगे (12), मिताली खांडेकर (8), अथर्व पंडित (13), निखिल दाबाले (14) और सान्या पंडित (11) जैसे सोसायटी के अन्य बच्चे भी ऑरोन और कुत्ते की मदद के लिए आ गए। सबने मिलकर अपने इस नए दोस्त के लिए र्ईंटों का एक छोटा-सा घरोंदा बनाया। उन्होंने उसे थोड़ा दूध पिलाया और सबकी सहमति से उसका नाम रखा गया- रॉकी।


इतना ही नहीं, 8 से 15 साल के इन बच्चों ने एक ऐसा एनजीओ भी तलाशा, जो उनके इस चौपाए दोस्त के लिए घर पाने में उनकी मदद करे। तब तक वे उसके अस्थायी बसेरे में उसकी देखभाल करेंगे। ये बच्चे पहले अपनी कॉलोनी के एक जिम्मेदार शख्स से जाकर मिले ताकि रॉकी को कोई स्थायी ठिकाना न मिलने तक साथ रखने की इजाजत मिल सके। सोसायटी के नियमों के मुताबिक वहां आवारा कुत्ते नहीं रखे जा सकते थे। बच्चे इस कुत्ते को पशु-चिकित्सक डॉ. उमेश करकरे के पास भी ले गए। बच्चों के व्यवहार को देखते हुए डॉ. करकरे ने इसके घावों की मुफ्त में मरहम-पट्टïी कर दी। उन्होंने इस कुत्ते की जांच के बाद पाया कि उसकी एक आंख में मोतियाबिंद भी है, जिसका ऑपरेशन बाद में किया जाएगा।


एक खास दोस्त को खास ट्रीटमेंट तो मिलना ही चाहिए। एक स्पा ट्रीटमेंट लेने के बाद वह इतना सुंदर दिखने लगा कि कहना मुश्किल था कि यह वही आवारा भटकने वाला कुत्ता है। अब बच्चे अपने इस चौपाए दोस्त के लिए स्थायी आशियाने की तलाश में जुट गए। पहले उन्होंने कुछ पैसे जुटाने की सोची और आस-पड़ोस से 5000 रुपए तक इकठ्ठा कर लिए।

जब मीडिया में इस चिल्लर पार्टी की स्टोरी आई, तो एक अन्य उपनगरीय इलाके में रहने वाली दो बहनों के एक परिवार ने एनजीओ से संपर्क साधा, जिसने आधिकारिक तौर पर रॉकी को अपनाने में उनकी मदद की। किसी भी परित्यक्त कुत्ते को आश्रय देने के लिए जरूरी यह है कि संभावित आश्रयदाता के साथ कनेक्शन बनाया जाए। लेकिन ऐसा कनेक्शन बनाना इतना आसान नहीं है, जितना लगता है। एक हाउसिंग सोसायटी की नौ बच्चों की यह चिल्लर पार्टी हमारे बंद समाज से भी संबंधित है, जहां पर हम उदारता या सहृदयता के तमाम दरवाजे बंद करते हुए रहते हैं और ऐसा एक भी दरवाजा खुला नहीं छोड़ते।


 prayagraj